कौशलेन्द्र झा
राजनीति में महिलाओं पर होने वाली हिंसा को लेकर संयुक्त राष्ट्र और सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की रिपोर्ट चौंकाने वाली है, खासकर भारत को लेकर। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 45 फीसदी महिला प्रत्याशियों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जिस देश में लगभग आधी मतदाता महिलाएं हों, उस देश में आजादी के 67 साल बाद भी राजनीति में आने वाली महिलाओं पर हिंसा हमारे लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाती है।
महिलाओं के अनुपात में उन्हें राजनीति में प्रतिनिधित्व मिलना तो दूर हिंसा के डर से उन्हें राजनीति में आने से रोकने की कोशिश खतरनाक संकेत है। आजादी के बाद से देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर जोर-शोर से अभियान चलाए गए। सरकारों से लेकर राजनीतिक दलों और स्वयं सेवी संगठनों ने महिलाओं को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए माहौल बनाने के हर संभव प्रयास किए। लेकिन धरातल पर जो स्थिति है वह रिपोर्ट में सामने आई है। महिलाओं को राजनीति में अधिक अवसर देने की बातें तो सभी दल करते हैं लेकिन व्यवहार में इसके उलट देखने को मिलता है।
संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण देने का मामला सालों से लंबित पड़ा है। कारण साफ है कि कोई भी दल सच्चे मन से शायद यह नहीं चाहता कि राजनीति में महिलाओं को आरक्षण मिले। 49 फीसदी महिलाओं की संख्या के मुकाबले 15वीं लोकसभा में कुल 58 महिलाएं चुनकर आई थीं, जो सदन की संख्या का 11 फीसदी भी नहीं हैं। संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण मिल जाए तो लोकसभा में 180 महिलाएं चुनकर आ सकती हैं। जिस दिन ऎसा हो पाएगा, तभी राजनीति में महिलाएं सुरक्षित हो पाएंगी।
महिलाओं के संसद और विधानसभाओं में चुनकर आने का फायदा राजनीति के शुद्धिकरण के रूप में भी मिल सकता है। महिला प्रत्याशियों के चुनावी मैदान में उतरने से राजनीति में होने वाली हिंसा पर तो लगाम लगेगी ही, आरोप-प्रत्यारोप से गंदी हो रही राजनीति पर भी विराम लगेगा। दुनिया के दूसरे देशों में भी महिलाएं राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। यूरोप और अमरीका में दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत के मुकाबले राजनीति में रहने वाली महिलाओं को हिंसा का सामना नहीं करना पड़ता है। केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ सभी राजनीतिक दल समाज में व्याप्त इस बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने की ठान लें तो कोई कारण नहीं कि भारत की महिलाओं को भी राजनीतिक मैदान में हिंसा से छुटकारा नहीं मिल सके।
राजनीति में महिलाओं पर होने वाली हिंसा को लेकर संयुक्त राष्ट्र और सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की रिपोर्ट चौंकाने वाली है, खासकर भारत को लेकर। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 45 फीसदी महिला प्रत्याशियों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जिस देश में लगभग आधी मतदाता महिलाएं हों, उस देश में आजादी के 67 साल बाद भी राजनीति में आने वाली महिलाओं पर हिंसा हमारे लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाती है।
महिलाओं के अनुपात में उन्हें राजनीति में प्रतिनिधित्व मिलना तो दूर हिंसा के डर से उन्हें राजनीति में आने से रोकने की कोशिश खतरनाक संकेत है। आजादी के बाद से देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर जोर-शोर से अभियान चलाए गए। सरकारों से लेकर राजनीतिक दलों और स्वयं सेवी संगठनों ने महिलाओं को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए माहौल बनाने के हर संभव प्रयास किए। लेकिन धरातल पर जो स्थिति है वह रिपोर्ट में सामने आई है। महिलाओं को राजनीति में अधिक अवसर देने की बातें तो सभी दल करते हैं लेकिन व्यवहार में इसके उलट देखने को मिलता है।
संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण देने का मामला सालों से लंबित पड़ा है। कारण साफ है कि कोई भी दल सच्चे मन से शायद यह नहीं चाहता कि राजनीति में महिलाओं को आरक्षण मिले। 49 फीसदी महिलाओं की संख्या के मुकाबले 15वीं लोकसभा में कुल 58 महिलाएं चुनकर आई थीं, जो सदन की संख्या का 11 फीसदी भी नहीं हैं। संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण मिल जाए तो लोकसभा में 180 महिलाएं चुनकर आ सकती हैं। जिस दिन ऎसा हो पाएगा, तभी राजनीति में महिलाएं सुरक्षित हो पाएंगी।
महिलाओं के संसद और विधानसभाओं में चुनकर आने का फायदा राजनीति के शुद्धिकरण के रूप में भी मिल सकता है। महिला प्रत्याशियों के चुनावी मैदान में उतरने से राजनीति में होने वाली हिंसा पर तो लगाम लगेगी ही, आरोप-प्रत्यारोप से गंदी हो रही राजनीति पर भी विराम लगेगा। दुनिया के दूसरे देशों में भी महिलाएं राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। यूरोप और अमरीका में दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत के मुकाबले राजनीति में रहने वाली महिलाओं को हिंसा का सामना नहीं करना पड़ता है। केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ सभी राजनीतिक दल समाज में व्याप्त इस बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने की ठान लें तो कोई कारण नहीं कि भारत की महिलाओं को भी राजनीतिक मैदान में हिंसा से छुटकारा नहीं मिल सके।
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