जातीय चौसर पर फिर बिहार की राजनीति

                                        मीनापुर कौशलेन्द्र झा
जाति आधारित राजनीति की जमीन रहे बिहार में एक बार फिर लोकसभा चुनाव के लिए नेता जातीय समीकरण बनाने की कोशिश में हैं। शुरू में विकास के नाम और दुहाई पर वोट मांगने वालों की राग अब जातीय हो गई है।
प्रत्येक सीट पर उतारे गए उम्मीदवारों के नाम पढ़कर भी इस समीकरण का एक खाका आसानी से दिखाई देता है। यहां जातियों को लेकर 'माई' (मुस्लिम -यादव), 'लव-कुश' , 'डीएम' , एसडीएमवीएस , महादलित जैसे समीकरण भी बनाए गए।
प्रदेश में जातीय विकास की राजनीति इस कदर हावी है कि शुक्रवार को कभी बिहार के पांच दिन के मुख्यमंत्री रहे सतीश प्रसाद सिंह ने यह कहते हुए भाजपा से इस्तीफा दे दिया कि पार्टी ने वायदे के मुताबिक कुशवाहा समाज के लोगों को टिकट नहीं दिया। कुछ दिन पहले जदयू छोड़ने वाले साबिर अली ने कहा था कि पार्टी ने उन्हें इसलिए टिकट नहीं दिया कि वो मुसलमान हैं। कुर्मी होते तो ऐसा नहीं होता।
जाति आधारित राजनीति के पुराने खिलाड़ी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद सबको 'अहीर मरोड़' का दांव बता और समझा रहे हैं। कुर्मी बहुल इलाकों में उनकी सफाई होती है-'कुर्मी भाइयों, मैं हमेशा आपके दिल में रहा हूं। कुछ लोगों ने साजिश कर आपको मुझसे दूर करने की कोशिश की है।' सवर्ण जातियों को लेकर लालू आजकल कुछ ज्यादा आग्रही हैं। उनका कहना है कि 'मैंने कभी नहीं कहा कि भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्माण, लाला) को साफ करो।'
दरअसल, नेता जातीय बयानों की आड़ में अपने काम और वादे को छुपा लेते हैं। जातीय संगठन टिकट के लिए पार्टियों पर दबाव बनाने का चरण पूरा कर चुके हैं। अब फतवा का दौर चल रहा है जिसमें 'जाति तोड़ो-जनेऊ तोड़ो' जैसे नारों से हवा बनाने की कोशिश हो रही है।

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