दरभंगा : फिर पुराने मोड़ पर राजनीति

मीनापुर कौशलेन्द्र झा
बिहार में बंगाल का द्वार कहा जाने वाला दरभंगा जिला अपने मैथिली पहचान के लिए पूरे देश में मशहूर है। यहां की सामाजिक बुनावट राजनीति का मूल आधार है। यही बुनावट वर्ष 1977 से लेकर अबतक यहां के प्रतिनिधियों का निर्धारण करती आयी है। विशेष सामाजिक संरचना के कारण ही यहां राजनीति में केवल दो ध्रुव हैं। एक ब्राह्म्ण और दूसरा मुसलमान। इस बार भी सभी प्रमुख दलों ने इसी संरचना के आधार पर अपने मोहरों को मैदान में उतारा है। मसलन राजद-कांग्रेस गठबंधन ने चार बार सांसद रह चुके अली अशरफ फातमी को एक बार फिर आजमाया है वहीं भाजपा ने निवर्तमान सांसद कीर्ति झा आजाद पर अपना दांव खेला है। जबकि जदयू ने भी संजय झा को मैदान में उतारकर इसी सामाजिक संरचना को सम्पुष्ट किया है। यानी कुल मिलाकर दरभंगा की राजनीति एक बार फिर से उसी मोड़ पर खड़ी है।
वर्ष 1989 से पहले दरभंगा में ब्राह्म्णों का कब्जा था। ब्राह्म्णों के वर्चस्व का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1977 के गैर कांग्रेसी लहर होने के बावजूद लोकदल ने किसी गैर ब्राह्म्ण को मैदान में उतारने का जोखिम नहीं उठाया। लोकदल प्रत्याशी सुरेंद्र झा सुमन ने तब कांग्रेस के धाकड़ नेता माने जाने वाले राधानंदन झा को हराया। इस चुनाव में श्री सुमन को 73.57 फीसदी वोट और श्री झा को 22.74 फीसदी वोट मिले। वर्ष 1980 में चुनावी लड़ाई की रंगत बदली। समाजवादी जनता पार्टी के उम्मीदवार हुकुमदेव नारायण यादव ने कांग्रेसी हरि नाथ मिश्रा को कड़ी टक्कर दी। लेकिन हराने में कामयाब नहीं हो सके। वर्ष 1984 में भी ब्राह्म्णों का कब्जा दरभंगा सीट पर बरकरार रहा। लोकदल के उम्मीदवार विजय कुमार मिश्रा ने कांग्रेस के हरिनाथ मिश्रा को पराजित कर सीट कांग्रेस के जबड़े से निकालने में सफलता हासिल की।
वर्ष 1989 का चुनाव दरभंगा लोकसभा क्षेत्र के लिए अहम साबित हुआ। तब जनता दल के शकील रहमान ने पूरी लड़ाई को नयी दिशा दे दी। माई समीकरण ने अपना अस्तित्व दिखलाया और श्री रहमान कांग्रेस के नागेंद्र झा को हराने में कामयाब रहे। वर्ष 1991 में जनता दल ने अली अशरफ फातमी को अपना उम्मीदवार बनाया और जीत माई समीकरण की हुई। ब्राह्म्ण फिर हारे। उनके हारने और श्री फातमी के जीतने का सिलसिला लगातार तीन चुनावों में जारी रहा। वर्ष 1996 में श्री फातमी ने भाजपा के दिनकर कुमार झा और वर्ष 1998 में पंडित ताराकांत झा को हराया। लेकिन वर्ष 1999 में भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद और भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्य रहे कीर्ति आजाद को अपना उम्मीदवार बनाया। उस समय जदयू के नीतीश कुमार का गठबंधन भाजपा के साथ था। यह गठबंधन लालू प्रसाद के माई समीकरण पर भारी पड़ा और श्री फातमी चुनाव हार गये। लेकिन श्री फातमी ने वर्ष 2004 में भाजपा को हराने में कामयाबी हासिल की। इस चुनाव में श्री फातमी को 56.08 फीसदी और श्री आजाद को 37.27 फीसदी वोट मिले। वर्ष 2009 का चुनाव परिसीमन लेकर आया। परिसीमन के कारण दरभंगा लोकसभा क्षेत्र के भौगोलिक स्वरूप में परिवर्तन तो हुआ लेकिन इसका कोई असर यहां के सामाजिक बुनावट पर नहीं पड़ा। भाजपा ने एक बार फिर कीर्ति झा आजाद को उम्मीदवार बनाया और वे सफल हुए। इस चुनाव में उन्हें 2 लाख 39 हजार 256 वोट मिले। जबकि श्री फातमी को 1 लाख 92 हजार 814 मत। इस चुनाव में राजद को कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं होना महंगा पड़ा। वहीं कांग्रेसी उम्मीदवार 40 हजार 724 वोट मिले जो श्री फातमी की हार कारण बना। बहरहाल, इस बार का चुनाव भी कमोबेश इसी ढर्रे पर लड़ा जा रहा है। विकास के तमाम दावे और विकास के नाम पर राजनीति खोखली बातें साबित हुई हैं। इसका प्रमाण यह है कि राजनीति पर सामाजिक समीकरण हावी है। अंतर केवल इतना है कि जदयू के उम्मीदवार के कारण ब्राह्म्ण वोटों में बिखराव संभव होगा। वैसे देखना दिलचस्प होगा कि इस बार भी दरभंगा की जनता पुरानी लड़ाई को बदस्तूर जारी रखती है या नहीं।

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