वैशाली : छठी बार ताजपोशी की तैयारी या परिवर्तन की बारी

मीनापुर कौशलेन्द्र झा
संपूर्ण विश्व में पहली लोकतंत्र को साकार करने का गौरव वैशाली की धरती को जाता है। कभी लिच्छवी वंश ने लोकतंत्र की स्थापना वैशाली में की थी। बाद में जनता के बूते राज चलाने का सिद्धांत पूरे विश्व में फैला। वर्ष 1977 के पहले इस क्षेत्र में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था। लेकिन बाद में पूरी तस्वीर ही बदल गयी। वर्ष 1984 में हुई लोकसभा चुनाव को अपवाद मानें तो अबतक हुए चुनाव में समाजवादियों की जीत बदस्तूर जारी है। वर्ष 1989 के बाद तो वैशाली की जनता ने जनता दल के उम्मीदवारों (बाद में राष्ट्रीय जनता दल बना) को ही विजयी बनाया है। वर्ष 1996 से लेकर अबतक हुए पांच लोकसभा चुनावों में जीत डा. रघुवंश प्रसाद सिंह को मिली है। इस बार भी वह राजद से उम्मीदवार बने हैं।
उधर डा. सिंह की राह रोकने के लिए जदयू और भाजपा गठबंधन ने जातिगत समीकरणों के तहत अपने उम्मीदवार खड़े किये हैं। मसलन जदयू ने विजय सहनी को उम्मीदवार बनाया है वहीं भाजपा ने यह सीट लोजपा के खाते में डाल दिया है। लोजपा ने इस सीट से बाहुबली रामा सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया है। रामा सिंह जाति के राजपूत हैं और भाजपा+लोजपा गठबंधन के निशाने पर वैशाली जिले के सवर्ण मतदाता हैं। हालांकि इस क्षेत्र में भूमिहार समाज के मतदाताओं की संख्या निर्णायक भूमिका निभाती है और लोजपा को यकीन है कि इस समाज का वोट उसे ही मिलेगा।
वहीं जदयू के निशाने पर अति पिछड़ा वर्ग के मतदाता हैं। नये परिसीमन के बाद इस संसदीय क्षेत्र में अति पिछड़ा वर्ग की भूमिका बढ़ी है। इसके अलावा जदयू के निशाने पर राजद का माई समीकरण भी है। लिहाजा वह भी जीत की दावे ठोंक रही है।
असल में जदयू और लोजपा की यह राजनीतिक चाल अप्राकृतिक नहीं है। पिछली बार वर्ष 2009 में हुए चुनाव में यह तथ्य सामने आया था। हालांकि राजद के उम्मीदवार डा. रघुवंश प्रसाद सिंह विजयी थे लेकिन उन्हें जदयू के बाहुबली विजय कुमार शुक्ला ऊर्फ मुन्ना शुक्ला (अब जेल में बंद) ने नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इन दोनों के बीच मतों का अंतर केवल 22,324 मतों का था। स्थानीय समीकरणों के हिसाब से श्री शुक्ला को अपने स्वजातीय मतदाताओं के अलावा भाजपा कोटे के मतदाताओं और अति पिछड़ा समाज के मतदाताओं का वोट प्राप्त हुआ था। इसके अलावा जदयू ने कई विधानसभा क्षेत्रों में राजद के माई समीकरण में सेंध लगाने में सफलता हासिल की थी।
इस बार का चुनाव इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछली बार दूसरे स्थान पर रहे विजय कुमार शुक्ला गोपालगंज जिले के जिलाधिकारी रहे जी. कृष्ण्ौय्या की हत्या के मामले में जेल की सजा काट रहे हैं। वहीं उनकी पत्नी अनु शुक्ला जो स्वयं जदयू की विधायक हैं और जदयू द्वारा विजय सहनी को उम्मीदवार बनाये जाने का विरोध कर रही हैं। राजनीति बड़ी तेजी से बदलती जा रही है। राजनीतिक गलियारे में चल रही इस कयासबाजी को आधार मानें तो इस बार वैशाली में लोकसभा चुनाव दिलचस्प रहने की उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि इससे पहले के चुनावों पर नजर डालें तो यहां के चुनाव मध्यम दर्जे के दिलचस्प साबित हुए हैं। मध्यम दर्जे के दिलचस्प का मतलब यह कि विजयी रहने वाले उम्मीदवार और दूसरे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवार के बीच औसत अंतर करीब दस फीसदी रहा है। वर्ष 1989 में उषा सिंह ने बतौर जनता दल प्रत्याशी जीत हासिल की थी। तब उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार किशोरी सिन्हा को पराजित किया था। इस चुनाव में दोनों को क्रमश: 62.84 फीसदी और 32.5 फीसदी वोट मिले थे। इसके बाद वर्ष 1991 में हुए चुनाव में जीत जनता दल के शिवशरण सिंह को मिली। तब पूर्व सांसद उषा सिन्हा ने कांग्रेसी उम्मीदवार के रूप में ताल ठोंका था। इसके बाद वर्ष 1996 में जनता दल ने डा. रघुवंश प्रसाद सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया। उन्होंने इस क्षेत्र में जीतने का सिलसिला पहली बार समता पार्टी के उम्मीदवार वृषिण पटेल को हराकर शुरू किया। इस चुनाव में इन दोनों के बीच मतों का अंतर कुल पड़े वोटों का करीब 9 फीसदी था। वर्ष 1998 में हुए चुनाव में एक बार फिर वृषिण पटेल की हार हुई और डा. रघुवंश प्रसाद सिंह जीतने में कामयाब रहे। वहीं वर्ष 1999 के चुनाव में बाहुबली आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने डा. सिंह को कड़ी चुनौती दी। हालांकि जीत डा. सिंह को ही मिली। वर्ष 2004 में हुए चुनाव में जदयू ने बाहुबली विजय कुमार शुक्ला ऊर्फ मुन्ना शुक्ला में अपना विश्वास व्यक्त किया लेकिन उसका यह तीर भी बेकार साबित हुआ। डा. रघुवंश प्रसाद सिंह जीतने में कामयाब रहे। वहीं वर्ष 2009 के चुनाव में भी कमोबेश यही कहानी दुहरायी गयी।
बहरहाल, वैशाली में इस बार के चुनाव में कुछ नये ट्विस्ट यानी रहस्यमयी मोड़ आने की संभावनायें हैं। इन संभावनाओं की उत्पत्ति का श्रेय बिहार सरकार के कद्दावर मंत्री व वैशाली जीतने का सपना देख रहे वृषिण पटेल को जाता है जिन्हें उनकी ही पार्टी ने बेटिकट कर दिया है। अपनी ही पार्टी के इस रवैये से नाराज श्री पटेल ने खुल्लमखुला विद्रोह करने के संकेत दिये हैं। लिहाजा समीकरणों में फेरबदल संभव है। हालांकि यह फेरबदल किसे लाभ पहुंचायेगा और किसे नुकसान यह तो वैशाली की जनता ही बतायेगी।

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