मीनापुर कौशलेन्द्र झा
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ‘वेंटिलेटर’ पर हैं……..कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव हैं. इसलिए रुपए की क़ीमतों में गिरावट का खेल, खेला जा रहा है….ताकि विदेशों में जमा ‘काले धन’ का थोड़े हिस्से से ‘चुनावी जंग’ जीती जा सके. ऐसा लगता है मानो मोहब्बत, जंग और चुनाव में सब जायज है. बहुत सारी चीज़े रणनीति बनाकर तय की जाती हैं और उसका दोष आंतरिक और वाह्य कारणों पर मढ़कर खुद को निर्दोष बताया जाता है.
किसानी की ‘सार्वजनिक उपेक्षा’ का सरकारी एजेंडा किसी से छुपा नहीं है. ऊपर से प्रधानमंत्री का बयान कि कृषि क्षेत्र से काफी उम्मीदे हैं. पहली पंचवर्षीय योजना के बाद से कृषि को हासिए पर ढकेलने के नीति आज भी जारी है. अब तो पीछे मुड़कर देखने का कोई सवाल ही नहीं है. भारतीय कृषि को मॉनसून का जुआ कहा जाता है. सरकार भी जुआ खेल रही है.
सरकार को पता है कि औघोगिक क्षेत्र की कोई लॉबी किसानों के लिए उनके ऊपर दबाव बनाने से रही. सबसे कमज़ोर स्थिति वाले लोगों को ही राजनीति में मोहरा बनाया जाता है. इसीलिए सारे मनमाने फैसले लिए जाते हैं. फसल का मूल्य निर्धारण हो, बढ़ती क़ीमतों पर लगाम लगाने के लिए विदेशों से आयात हो, ‘खाद्य सुरक्षा’ के नाम पर ‘खेती की उपेक्षा’ और बर्बादी का लोकलुभावन फैसला जो विकास के खेल में ‘आत्मघाती गोल’ साबित हो सकता है.
जब देश में अनाज नहीं होगा तो विदेशों से आयात क लोगों को इसकी पूर्ति करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा. सारी फायदा विदेशी एजेंसियों को मिलेगा. क्या उस समय चालू खाते का तथाकथित घाटा, विपरीत भुगतान संतुलन नहीं बढ़ेगा? आर्थिक विकास के तमाम शब्दकोषों की आड़ में सरकार तमाम खेल, खेल रही है और परिणामों का तमाशा देख रही है.
गाँव में एक कहावत कही जाती है कि किसान तो ‘हरी दूब’ हैं. इनको चाहे जितना काटो फिर से पनप आते हैं. यह मुहावरा संभवतः कृषि क्षेत्र पर टिके उद्योगों जैसे चीन मिलों के कोर ग्रुप से बाहर निकला है, गन्ने की कम क़ीमतें देना. घटतौली करना और आसपास की जमीनों को औने-पौने दामों पर दबाव बनाकर खरीदने के किस्सों की भरमार है. उसी सोच की राह पर सरकारी नीतियों का निर्माण हो रहा है और लोगों को बताया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक से किसानों का लाभ होगा. कितना लाभ हुआ है, अतीत इस बात का गवाह है, भविष्य भी देख लेते हैं.
इस बात के समर्थन में अर्थशास्त्रियों की एक लॉबी लंबे समय से काम कर रही है. 2008 में ऐसे ही एक अर्थशास्त्री को सुनने का मौका मिला. जिसमें उन्होंने कहा था कि किसानों को अपनी ज़मीन कंपनियों को बेचकर बच्चों को पढ़ाना चाहिए. लंबे समय तक लोगों का मानस रचने के काम के बाद सरकार विदेयक लेकर आ गयी है. पास भी हो गया है
दूसरी तरफ रिपोर्टें आ रही है कि गाँव में नौकरियों की कमी होगा. युवाओं को शहरों को ओर पलायन करना होगा. सरकार को गाँव के लोगों को गाँव में रोकने के लिए प्रयास करना चाहिए. इसके लिए कई सालों से ‘पूरा’ योजना के तहत शहरी सुविधाओं के झाँसे में गाँव के लोगों को फांसने का काम सरकार पूरी प्रतिबद्धता के साथ कर रही है.
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ‘वेंटिलेटर’ पर हैं……..कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव हैं. इसलिए रुपए की क़ीमतों में गिरावट का खेल, खेला जा रहा है….ताकि विदेशों में जमा ‘काले धन’ का थोड़े हिस्से से ‘चुनावी जंग’ जीती जा सके. ऐसा लगता है मानो मोहब्बत, जंग और चुनाव में सब जायज है. बहुत सारी चीज़े रणनीति बनाकर तय की जाती हैं और उसका दोष आंतरिक और वाह्य कारणों पर मढ़कर खुद को निर्दोष बताया जाता है.
किसानी की ‘सार्वजनिक उपेक्षा’ का सरकारी एजेंडा किसी से छुपा नहीं है. ऊपर से प्रधानमंत्री का बयान कि कृषि क्षेत्र से काफी उम्मीदे हैं. पहली पंचवर्षीय योजना के बाद से कृषि को हासिए पर ढकेलने के नीति आज भी जारी है. अब तो पीछे मुड़कर देखने का कोई सवाल ही नहीं है. भारतीय कृषि को मॉनसून का जुआ कहा जाता है. सरकार भी जुआ खेल रही है.
सरकार को पता है कि औघोगिक क्षेत्र की कोई लॉबी किसानों के लिए उनके ऊपर दबाव बनाने से रही. सबसे कमज़ोर स्थिति वाले लोगों को ही राजनीति में मोहरा बनाया जाता है. इसीलिए सारे मनमाने फैसले लिए जाते हैं. फसल का मूल्य निर्धारण हो, बढ़ती क़ीमतों पर लगाम लगाने के लिए विदेशों से आयात हो, ‘खाद्य सुरक्षा’ के नाम पर ‘खेती की उपेक्षा’ और बर्बादी का लोकलुभावन फैसला जो विकास के खेल में ‘आत्मघाती गोल’ साबित हो सकता है.
जब देश में अनाज नहीं होगा तो विदेशों से आयात क लोगों को इसकी पूर्ति करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा. सारी फायदा विदेशी एजेंसियों को मिलेगा. क्या उस समय चालू खाते का तथाकथित घाटा, विपरीत भुगतान संतुलन नहीं बढ़ेगा? आर्थिक विकास के तमाम शब्दकोषों की आड़ में सरकार तमाम खेल, खेल रही है और परिणामों का तमाशा देख रही है.
गाँव में एक कहावत कही जाती है कि किसान तो ‘हरी दूब’ हैं. इनको चाहे जितना काटो फिर से पनप आते हैं. यह मुहावरा संभवतः कृषि क्षेत्र पर टिके उद्योगों जैसे चीन मिलों के कोर ग्रुप से बाहर निकला है, गन्ने की कम क़ीमतें देना. घटतौली करना और आसपास की जमीनों को औने-पौने दामों पर दबाव बनाकर खरीदने के किस्सों की भरमार है. उसी सोच की राह पर सरकारी नीतियों का निर्माण हो रहा है और लोगों को बताया जा रहा है कि भूमि अधिग्रहण विधेयक से किसानों का लाभ होगा. कितना लाभ हुआ है, अतीत इस बात का गवाह है, भविष्य भी देख लेते हैं.
इस बात के समर्थन में अर्थशास्त्रियों की एक लॉबी लंबे समय से काम कर रही है. 2008 में ऐसे ही एक अर्थशास्त्री को सुनने का मौका मिला. जिसमें उन्होंने कहा था कि किसानों को अपनी ज़मीन कंपनियों को बेचकर बच्चों को पढ़ाना चाहिए. लंबे समय तक लोगों का मानस रचने के काम के बाद सरकार विदेयक लेकर आ गयी है. पास भी हो गया है
दूसरी तरफ रिपोर्टें आ रही है कि गाँव में नौकरियों की कमी होगा. युवाओं को शहरों को ओर पलायन करना होगा. सरकार को गाँव के लोगों को गाँव में रोकने के लिए प्रयास करना चाहिए. इसके लिए कई सालों से ‘पूरा’ योजना के तहत शहरी सुविधाओं के झाँसे में गाँव के लोगों को फांसने का काम सरकार पूरी प्रतिबद्धता के साथ कर रही है.
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