नेता और जनता का ‘रोमांस’

मीनापुर  कौशलेन्द्र झा 
जब नेता और जनता के बीच मोहब्बत के चर्चे हों तो समझो चुनाव करीब आ गए हैं. नारों लगाती भीड़ के हाथों में पत्थर और डंडें हो तो समझो चुनाव आ गए हैं. पति एक पार्टी में और पत्नी दूसरी पार्टी में चले जाएं तो समझों चुनाव आ गए हैं. वोट और नोट के संबंधों पर विचार-विमर्श होने लगें तो समझो लोकतंत्र का त्योहार करीब आ गया है. यह बात दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के बारे में सच जान पड़ती है.
16वें लोकसभा चुनावों की तैयारियों का असर बढ़ती नक्सली गतिविधियों, धमाके में उड़ते स्कूलों, रैलियों में जुटती भीड़, पार्टी बदलते नेता, अभिनेता से नेता बनते फ़िल्मी दुनिया के नायक और खलनायक. संप्रदाय, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, शिक्षा, जागरूकता के आधार पर इतना साफ़ विभाजन पाँच सालों के अंतराल पर या बीच-बीच में होने वाले अलग-अलग चुनावों के दौरान ही नज़र आता है. चुनावों के दौर की ईमानदारी काबिल-ए-ग़ौर होती है. जनता और नेता अपनी पहचान जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, विचारधारा, पार्टी, मौकापरस्ती, व्यावहारिकता को गले लगाते प्रतीत होते हैं. नेताओं की सत्ता चरित्र सामने आता है.
विचारधारा का खूंटा तोड़कर भागते नेता बताते हैं कि यह धारा जब व्यक्तिगत तरक्की की राह में रोड़ बन जाय तो इससे उबर जाना बेहतर होता है. एक नाव डूबने लगे तो दूसरे पर सवार हो लेना अच्छा रहता है. लेकिन एक ही सीख हर किसी के लिए लागू नहीं होती. जो जनता के बीच मजबूत है. वह हमेसा राजनीति के इम्तिहान में अव्वल आता है. इतने सारे लोकसभा क्षेत्र हैं. अकेले भारत के सबसे बड़े आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में लोकसभा की अस्सी सीटें हैं. इसका लाभ यहां के कद्दावर नेताओं को मिलता है.
कुछ नेताओं का तो सत्ता का फार्मूला काफ़ी सीधा है. पाँच साल के बाद पार्टी बदल लो, लोकसभा विधानसभा क्षेत्र बदलो, पैसा फूंको, जनता का वोट बटोरो और सत्ता का सुख भोगो. कुछ नेताओं ने इस फ़ार्मूले को बड़े अच्छे से साधा है. लेकिन हर किसी के लिए दौड़भाग वाली प्रतियोगिता का हिस्सा बनना आसान नहीं होता. लेकिन भारती. राजनीति के प्रोफ़ेशन के बारे में भी एक बात कभी-कभार सच लगती है कि तरक्की के लिए पार्टी बदलना और मंत्रालय तक पहुंचने के लिए मौका देखकर गुट बदलना कितना जरूरी होता है?
अभी भागते राजनेताओं की भगदड़ देखने लायक है. कौन किधर चला जाएगा, कुछ कहना मुश्किल है…ऐसा लगता है सारे नेताओं को भागने की बीमारी लग गई है…..कोई टिकट के लिए भाग रहा है, कोई वोट के लिए भाग रहा है, कोई चुनावी ख़र्चों वाले नोट के लिए भाग रहा है, कोई अपनी पार्टी छोड़कर…नई पार्टी की तरफ़ भाग रहा है,,,तो कोई विचारधारा का खूंटा तोड़कर भाग रहा है….इतनी भागमभाग का कोई लाभ नहीं…खरगोश वाली कहानी की तरह तेज़ भागदौड़ के खर्राटे वाली नींद का नज़ार भी देखने को मिलेगा.
अंत में सवाल रचनात्मक क्षेत्र के लोगों के राजनीति में पदार्पण का कि आख़िर देश की राजनीति में कलाकारों का क्या उपयोग हो सकता है?
अभिनेताः लोगों के बीच प्रचार के लिए विकास का अभिनय करेंगे.
गायकः विकास के ऐसे अनोखे गीत लिखेंगे कि सुनने वाले चौंक जाएं.
विदूषकः जनता को मुफ़्त में भद्दा मनोरंजन उपलब्ध करवाएंगे.
 

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