पश्चिम चंपारण : पाला बदलने के साथ ही बदल गयी राजनीति

मीनापुर कौशलेन्द्र झा
तीन वर्षों के बाद पूरे देश में एक खास जश्न मनाया जाएगा। यह जश्न होगा महात्मा गांधी के चंपारण पहुंचने के सौ साल पूरे होने की खुशी में। आये दिन महात्मा गांधी के नाम को लेकर मशहूर इस अति विशेष लोकसभा क्षेत्र का चरित्र गांधीवाद से बिल्कुल पृथक है। यह भी एक संयोग ही है कि इस क्षेत्र में अति पिछड़ा वर्ग अन्य जाति एवं समुदायों से अधिक प्रभावी है। अति पिछड़ा वर्ग में भी वैश्य समुदाय के लोगों की संख्या अधिक है। यही कारण है कि इस समुदाय के प्रतिनिधि ने पांच बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का गौरव हासिल किया है। वर्तमान सांसद डा. संजय जायसवाल के पहले उनके पिता डा. मदन प्रसाद जायसवाल ने गांधी के कर्मभूमि पर भगवा झंडा फहराने में सफलता हासिल किया था। पिता के निधन के बाद डा. सजय जायसवाल ने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वर्ष 2009 में सीट जीतने में कामयाब रहे।
वर्ष 2009 में विपरीत परिस्थतियां होने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि उस समय फिल्म निर्देशक प्रकाश झा मैदान में जमे थे। हालांकि श्री झा ने पहले भी यहां का सांसद होने के लिए एड़ी चोटी का असफल जोर लगाया था। लेकिन वर्ष 2009 में वे राजद और लोजपा के संयुक्त उम्मीदवार थे। इसके अलावा बसपा के शम्भू प्रसाद गुप्ता के अलावा कांग्रेस की ओर से लालू प्रसाद के साले अनिरूद्ध प्रसाद यादव उर्फ साधू यादव भी मैदान में खड़े थे। डा. संजय जायसवाल के लिए सकारात्मक यह था कि विपक्ष पूरी तहर बिखरा था। इसका लाभ उन्हें मिला। उन्होंने 1 लाख 98 हजार 778 मत हासिल किया जबकि दूसरे स्थान पर रहने वाले प्रकाश झा को 1 लाख 51 हजार 438 मत मिले थे। श्री झा की जीत में सबसे बड़े खलनायक अनिरूद्ध प्रसाद यादव उर्फ साधू यादव थे जिनके नाम पर उन्होंने अपनी एक फिल्म में एक किरदार का नामकरण किया था। श्री यादव ने 70001 वोट हासिल कर श्री झा को हराने में सफलता हासिल की।
वर्ष 1992 में नये परिसीमन से पहले पश्चिम चंपारण की राजनीति का रंग और ढंग दोनों अलग था। वर्ष 1992 में बाबरी विध्वसं के बाद गांधी की कर्मभूमि पर भगवा झंडा शान से लहराया। भाजपा के डा. मदन प्रसाद जायसवाल ने वर्ष 1996, वर्ष 1998 और वर्ष 1999 में लगातार तीन बार जीतने का कीर्तिमान बनाया। हालांकि वर्ष 2004 में भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ का जादू पूरे देश के जैसे पश्चिम चंपारण में भी नहीं चला। राजद के रघुनाथ झा ने डा. जायसवाल को हराने में कामयाबी हासिल की। श्री झा को 37.13 फीसदी और डा. जायसवाल को 32.8 फीसदी वोट मिले थे।
वहीं वर्ष 1992 के पहले इस सीट पर गांधी और जेपी के अनुयायियों के बीच ही संघर्ष हुआ करता था। मसलन जेपी के अनुयायी रहे फजलूर रहमान ने वर्ष 1977 में बतौर लोक दल प्रत्याशी जीत हासिल की थी। उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार केदार पांडे को हराया था। जबकि वर्ष 1980 में श्री पांडे ने श्री रहमान को हराकर अपना बदला ले लिया। वर्ष 1984 के चुनाव में एक नया परिवर्तन यह आया कि जेपी के संपूर्ण क्रांति का राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो गया और वामपंथ ने अपना प्रभावकारी हस्तक्षेप किया। वर्ष 1984 में पीताम्बर सिंह और वर्ष 1989 में अब्दुल मोगनी कैफी ने सीपीआई उम्मीदवार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराया और दोनों बार सीपीआई दूसरे स्थान पर रही।
बहरहाल, इस बार राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। प्रकाश झा ने लोजपा का दामन छोड़ जदयू का दामन थामा है। वहीं दूसरी ओर राजद और कांग्रेस गठबंधन ने अपना दावा ठोंक रखा है। कांग्रेस ने अनिरूद्ध प्रसाद यादव उर्फ साधू यादव को पार्टी से निकाल दिया है। जातीय समीकरणों के हिसाब लड़ाई भाजपा, राजद और जदयू के बीच होना तय है। कांग्रेस के साथ गठबंधन होने की स्थिति में कांग्रेस भी मुकाबले में साझेदार हो सकती है। हालांकि इसकी स्थिति अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुई है।

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